कामुकता बढाकर सभ्यता का रोना

हम पूरब नहीं हैं जहाँ लडके -लडकियों को सेक्स की आजादी है।हम सनातन नहीं रहे जहाँ माँ-बाप बच्चे में यह लक्षण दिखते ही उसके विवाह की तैयारी करने लगते थे या कई समाजों में लक्षण दिखने के पहले ही व्यवस्था करके रखते थे।अर्थात हम अपना समाज कामुक बना रहे हैं।चहूँओर अंगारे धधक रहे है ।कौन कब जल जाए?

फाँसी से सभ्यता की आकांक्षा का विगुल फूक रहे हैं।वह सनातन तपश्चर्यापूर्ण गृहस्थ जीवन भूलकर जो बच्चों के बचपन की आयु को बढाता था।वह पूर्व से बच्चे की जरूरत का इंतजाम सब गलत था।अब हो गये कामुक मरेगें नहीं तब तक बचने का इंतजाम करो।या जल्दी से पश्चिम होकर बच्चों को आजादी दो।

गुनाहगार महत्वपूर्ण नही है यह कामुकता जो आने के बाद मरे बाद जाती है यह चिंता का विषय है।जो हालत हैं उसमें तपश्चर्या असंभव है।इसलिए अगर मोदी सरकार गंभीर है तो सभी आयु के बच्चों को सहमति स्वतंत्र सेक्स की आजादी दे।इसके लिए समाज को व्यवधान करने पर दंडित करे।इसका व्यापक प्रचार करे।सनातनिज्म गया,बचाना नामुमकिन है।

mobs ideas is great ideas-say latest democracy.

सदैव से सत्य के सम्मुख समर्पण कर इंसान और इंसानियत के विचार ने भीड के प्रमाणों को खारिज कर प्रतिक्रिया वाद से रोका है।यह विचार सत्ता के पथदर्शी रहे।आज दुनियाभर के लोकतंत्र सामान्य आदमी की उत्तेजना का नैतृत्व कर रहे हैं।यह उत्तेजित नेतृत्व सामान्य आदमी की मूल जरूरत रोजी रोजगार भी नहीं दिला पा रहे हैं।लेकिन भीड के उत्तेजित अमानवीय विचार का खुलकर नेतृत्व कर रहे हैं।

आज दुनिया के लोकतंत्र इंसान इंसान की हिस्सेदारी छीनकर विकास का गणित समझाते दिख रहे हैं।उनके पास अब विकास की नई क्रांति के सूत्र नहीं बचे हैं।इसलिए दुनिया भर में भय की राजनीति सिर चढकर तांडव कर रही है।इस स्थिति में जो विकास हो सकता था वह भी नहीं होगा।बडी बात यह है कि लोग अपने पूर्व के महापुरुषों को भी (जिन्होंने ने सत्य का सिथ दिया)उतारकर जमीन पर पटक रहे हैं और तत्कालीन प्रतिक्रियावादियों को अपना हीरो बना रहे हैं।

अब न्याय के सिद्धांतों को बदलने की शुरुआत होगी। भीड के पक्ष में न्याय ,न्यायाधीश के लिए जरूरी होगा।

हम एक नई दुनिया में जा रहे हैं हम अपने अपने कबीले बनाने जा रहे हैं।लोकतंत्र में भीड के विचार को महान विचार घोषित कर आसानी से सत्ता हासिल हो रही है।

कितना काम है?

फुली ओटोमेटिक वाशिंग मशीन में भी

कपडे डालो,सर्फ डालो,सेट करो

कपडे निकालो ,कपडे सुखाओ

कपडे उठाओ,कपडे समेटो

कपडे प्रेस को दो, गृहरानियों के लिए

सनातन धोबी कल्चर का मुकाबला नहीं

जहाँ कोई झंझट न था, गृहरानियों को

क्या मौज थी मामूली अमीरों की भी

कहाँ पटक दिया सबको लाकर फकीरी में

हे कवि

हे कवि तुम कुछ ऐसा लिखो
जो सब की समझ में पडे
क्यों जटिलता में पडकर
साहित्य में छिपतेे हो
मैं तुम्हारी कविता
एक अनपढ को सुनाउंगा
वह शाम अपनी व्यथा
शराब मेंं नहीं
तुम्हारी कविता मेें
भिगोएगा।

भारत माँ की जय?

कोई अपनी माँ की जय सडकों पर लगाता है?माँ के प्रेम का प्रदर्शन सनातन मूल्यों में वर्जित है।भारत माँ की जय ,वन्देमातरम ,हर हर महादेव,जय माँ काली यहाँ तक अल्लाह ओ अकबर आदि युद्ध उद्घोष हैं।इनका प्रशिक्षण भी ध्वज के सम्मुख पंक्तिबद्ध हो किए जाने की परम्परा रही है।युद्ध माहौल में यह गूंज देश की गली गली में फूट पडती है।

सडकों रैलियों कावड धार्मिक आयोजन में यह नारे सुनकर पता किया तो पता लगा कि यह किसी राष्ट्र प्रेम में नहीं अपितु कुछ लोग चिढते हैं इसलिए लगाए जा रहे हैं।एक युद्ध में परम आवश्यक भावनात्मक हथियार को चिढाने तथा राजनीतिक लाभ के लिए प्रयोग कर निष्प्रभावी बना दिया गया।कल जब हमारे सैनिक युद्ध को जाएंगे तो यह नारे अप्रभावी हो जाएंगे।इन तथ्यों से भिज्ञ कराने के बाद वह स्वम के राजनीतिक लाभ को प्रमुखता देते हुए पुनः भारत माँ की जय डीजे साउण्ड लगाकर लगाने लगे।यह वैसा ही हो गया कि एक भाई जो अथक परेशानी में माँ की चुपचाप सेवा में लगा हो ओर दूसरा भाई एक घंटे के लिए माँ के पास आ एक सेल्फी लेकर फेसबुक, व्हाट्सएप ट्युटर में पोस्ट कर माँ भक्त हो जाए।संपूर्ण समाज उस पोस्ट पर लाईक और कोमेण्ट करने लगे।इस भारत माँ की गूँज ,भारत माँ जय कहीं प्रकट नहीं है।

शिक्षा को चौकोर खानों में मत समेटो

प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में भारत में एक क्रांति घटित हुई है सदियों से शिक्षा से वंचित एससी एसटी ओबीसी अल्पसंख्यक समाजों के बच्चे स्कूलों में आये हैं।यह क्रांति भारत के दूरस्थ क्षेत्रों तक देखी जा रही है।यह परिवेश अशिक्षित है।परंतु बहुत बडी आशा ,बहुत कठिनाइयों को सिर लेकर इनमें पढाने की आतुरता बढी है।पिछले तीन चार वर्षों से नियमितता में भी गजब का सुधार है।ड्रापआउट भी कम हो रहा है।अर्थात चिंगारी उठ चुकी है ।

अब शिक्षा की बात होनी थी ,अंक -अक्षर की यात्रा शुरु होनी थी ।संसाधन बढे अच्छी बात पर परिवेश के अनुकूल कमी महसूस नही हो रही थी।इस बीच मिड डे मील अन्नपूर्णा दूध,टीकाकरण ,योग,व्यायाम आदि भी जुडा उन इक्का-दुक्का शिक्षकों के बावजूद ।यहाँ तक भार सहनीय था।शिक्षक दुनिया के सबसे बेहतरीन सीसीई पद्धति से पढायें यह भी अच्छा था ।

मगर सीसीई का चौकोर खानों में रिकॉर्ड संघारण से शिक्षक बच्चों के अभिमुख न रहा।इसी दौरान जब शुरुआत हो रही थी अचानक शैक्षणिक गुणवत्ता और क्वालिटी एजुकेशन न समझ पडने वाला एक ओर चौकोर खानों का तूफान आ गया।इधर देश डिजिटल विकास की ओर था शिक्षा में डिजिटलीकरण का ऐसा दौर चला कि शाला दर्पण, शाला सिद्धि, यू डाइस,आदि तमाम चौकोर खानों के जंजाल में आंकड़ों को भरवाने में लग गया।उधर वह आये बच्चे जिन्हें शिक्षक की इतिहास में सबसे अधिक जरूरत इस समय थी,न पाकर उन्होंने स्कूल का माहौल ही बदल दिया।शैली-कल्चर बदल दी।

जब बहुत छोटे संभव लक्ष्य लेकर चलने की जरुरत थी जिससे शिक्षक का मुख बच्चों की ओर ही रहे उस समय शिक्षक सरकार अभिमुख हो गये।एक अस्वीकार्य माहौल कल्चर बन गया।दूसरी ओर चौकोर खानों में रिकॉर्ड संघारण कर हम पुरस्कार उपलब्धि के पात्र बन गये।

कम शिक्षकों और संसाधनों में आँकड़ेबाजी के बडे खेल खेलने पर उतारूपन ने इस क्रांति पर पानी फेर दिया।काश प्रत्येक बच्चे को आठ साल में कम से कम कक्षा तीन का न्यूनतम लक्ष्य पूरा होता।अनुशासन व्यवस्था कल्चर कल्याण अंक -अक्षर ज्ञान न्याय सम्मान संस्कार के लिए तो शिक्षकों को समय चाहिए।

ऐसा नहीं हृदय पीडा पर शिक्षक ने समयाभाव की बात नहीं उठाई ।मगर जब उठाई तो नये शिक्षक और सहायक स्टाफ की जगह शिक्षकों का ही समय बढाकर चुप कर दिया गया।पूरा तंत्र पूर्व निर्धारित पंचाग से भटक त्वरित सूचना संग्रहण करने लगा।सतत जो सीसीई का प्रथम शब्द था उस पर अमल न हो सका।इन शिक्षकों को बीएल ओ आदि अन्य दायित्व भी निरन्तर रहे।खैर अब भी शिक्षक को विद्यार्थी अभिमुख रहने दिया जाए तो नये जुडे समाज की आशा बनी रहेगी।